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Saturday, June 20, 2020

व्यापक सामाजिक विभाजन की तरफ धकेलने का बाजारवादी कुचक्र बनेगी डिजिटल शिक्षा



व्यापक सामाजिक विभाजन की तरफ धकेलने का बाजारवादी कुचक्र बनेगी डिजिटल शिक्षा

“डिजिटल शिक्षा से 80 फीसद बच्चों के पढ़ाई से वंचित होने का खतरा”



राइट टू एजुकेशन फोरम द्वारा आयोजित वेबिनार में वक्ताओं ने शिक्षा में वर्चस्ववाद की आशंका जतायी



आरटीई फोरम, नई दिल्ली 20 जून 2020। कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में इस समय डिजिटल शिक्षा को आगे बढ़ाया जा रहा है। लेकिन यह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। विभिन्न कम्पनियों द्वारा मुनाफे की दृष्टि से डिजिटल शिक्षा की जोर–शोर से पैरोकारी की जा रही है। शिक्षा पहले से ही ख़तरे में थी, अब तो समस्या और भी विकराल हो गई है। डिजिटल पढ़ाई नियमित विद्यालय का विकल्प नहीं बन सकती। विद्यालय हमें सामाजिकता का बोध कराता है तथा गैर–बराबरी और  उंच-नीच की भावना को कम करता है। शिक्षा दरअसल मानव जीवन की शुरुआत से समाजीकरण के जरिये व्यक्तित्व-निर्माण की व्यापक प्रक्रिया है। उसे सिर्फ “लर्निंग आउटकम” से जोड़कर देखना व्यक्ति और समाज के विकास में शिक्षा की भूमिका को कमतर कर के आंकना है। अफसोस कि शिक्षा को समग्रता में देखने की बजाय उसे खंडित तरीकों से देखने और उन्हीं निष्कर्षों के आधार पर नीतियाँ तैयार करने का चलन बन गया है। लेकिन, एक लोकतान्त्रिक, समतामूलक, समावेशी और वैज्ञानिक समाज की स्थापना के लिए न केवल शिक्षा के मुख्तलिफ़ आयामों पर विमर्श जरूरी है बल्कि समाज के हाशिये पर मौजूद दलित-वंचित-आदिवासी और कमजोर वर्गों तक तक शिक्षा के न पहुँच पाने से जुड़ी चुनौतियों की शिनाख्त हकीकत की धरातल पर उतरकर करनी जरूरी है। ये बातें वक्ताओं ने  राईट टू एजुकेशन (आरटीई) फोरम द्वारा शिक्षा-विमर्श की सातवीं कड़ी में “डिजिटल लर्निंग के जरिये गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा - जमीनी हकीकत” विषय पर आयोजित वेबिनार में कही।



इस वेबिनार का संचालन अद्यतन शिक्षाशास्त्रीय विमर्शों के साथ निरंतर जुड़े, शैक्षिक अध्ययन विभाग, अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में कार्यरत डॉ॰ मनीष जैन ने किया।



अपने संबोधन में दिल्ली विश्वविद्यालय, शिक्षा विभाग के सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एजुकेशन की प्रो॰ पूनम बत्रा ने  कहा कि डिजिटल शिक्षा को ही अब शिक्षा देने का विकल्प मान लिया गया है, जो गलत है। समाज के भीतर व्यापक आबादी की न्यूनतम डिजिटल पहुँच के ठोस आंकड़ों और जातिगत, संसाधनों की उपलब्धता, लैंगिक भेद-भाव जैसे सामाजिक-आर्थिक विभेद के कारकों की सघन मौजूदगी के बावजूद डिजिटल शिक्षा के पक्ष में उठाया जा रहा शोर हर बच्चे को शिक्षा मुहैया कराने और शिक्षा के लोकव्यापीकरण के घोषित लक्ष्यों के प्रति संदेह उत्पन्न करता है। ऐसा लगता है जैसे पहले से ही नवउदारवादी नीतियों की शिकार शिक्षा के ऊपर वर्चस्ववादी नजरिये का घेरा और तंग होता जा रहा है। शिक्षा को समानता, आर्थिक तथा सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखने की जरूरत है।



उन्होंने कहा, “डिजिटल पढ़ाई, शिक्षा के उद्देश्यों को संपूर्ण रूप से पूरा नहीं करती है। शिक्षा-विमर्श की विभिन्न धाराओं पर चर्चा करते हुए महात्मा ज्योतिबा फुले सरीखे सामाजिक बदलाव के अगुआ जननायकों को यहाँ याद करना जरूरी होगा जिन्होंने औपनिवेशिक शिक्षा के प्रारूप के खिलाफ जारी एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की सीमाओं से आगे जाकर बराबरी के समाज का निर्माण और उसमें शिक्षा की अविछिन्न भूमिका को रेखांकित करते हुए अपनी लड़ाई लड़ी। उन्होंने शिक्षा को समग्रता में देखा था और उसी के हिसाब से आगे बढ़ाने का प्रयास किया था। पहले शिक्षा पर एक किस्म का वर्चस्ववाद हावी था। समाज के एक वर्ग द्वारा अपने को श्रेष्ठ मान कर और अपनी श्रेष्ठता क़ायम करने की दृष्टि से शिक्षा का स्वरूप तैयार किया गया था। लगातार संघर्ष के जरिये हमने शिक्षा के संदर्भ में कई अहम अधिकार और मुकाम हासिल किए। लेकिन धीरे-धीरे शिक्षा बाजार में पहुंच गया और फिर शिक्षा का ही बाज़ारीकरण हो गया। जैसे ही शिक्षा बाजार में पहुँचा, शिक्षा का संदर्भ भी बदल गया।”



प्रो. बत्रा ने आगे जोड़ा, “कोरोना के रूप में आई वैश्विक आपदा की वजह से शिक्षा पर हावी होने की सतत कोशिश में लगे बाजार को अभी डिजिटल शिक्षा को बढ़ाने का अवसर मिल गया है। इसे मुनाफे की दृष्टि से देखा जा रहा है। अनेक कम्पनियों की ओर से डिजिटल शिक्षा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। यह निश्चित रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। शिक्षा पहले से ही ख़तरे में थी, अब तो समस्या और भी विकट हो गई है। शिक्षा को पहले भी महज सीखने या लर्निंग से जोड़कर उसके मकसद को सीमित करने का प्रयास किया गया और अब इसे उपभोक्तावाद पर पहुंचा दिया गया है। समाज में पहले से ही अनेक प्रकार के भेदभाव थे, डिजिटल शिक्षा उसे औऱ बढ़ा देगी। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि समाज में बहुतायत लोग अपने अधिकारों को खो देंगे। लिहाज़ा हमें डिजिटल शिक्षा के विकल्प की बात करनी होगी। हमें शिक्षा के ऐसे समावेशी स्वरूप की बात करनी होगी जो समतामूलक समाज के निर्माण की धुरी बन सके।”



वेबिनार में अपनी बात रखते हुए, दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में प्रारम्भिक शिक्षा विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर स्मृति शर्मा ने कहा कि वर्तमान समय में डिजिटल शिक्षा को समालोचनात्मक दृष्टि से देखने की जरूरत है। राज्य की शिक्षा में दखलंदाजी पहले से रही है। लेकिन राज्य की भूमिका किनके पक्ष में है, ये देखना दिलचस्प है। शिक्षा पूरी तरह से राजनीतिक मसला रहा है। शिक्षा कुछ लोगों के द्वारा समाज पर थोपा जाता रहा है।



अपने एक शोध पत्र का जिक्र करते हुए प्रो. शर्मा ने कहा, “ डिजिटल शिक्षा किसकी जरूरतों को पूरा करेगी, हम सभी लोग अच्छी तरह से जानते और समझते हैं। वंचित समाज इसमें कहीं भी अपने को नहीं पा सकता। शिक्षा सामाजिक बदलाव का महत्वपूर्ण कारक होता है। शिक्षा का मतलब होता है कि सीखने और सिखाने की प्रक्रिया साथ में हो। बगैर साझा संवाद और शिक्षक-छात्र की जीवंत भागीदारी प्रक्रिया को अमल में लाये हम बच्चों को कैसी शिक्षा देंगे और कैसा समाज बनाएँगे? डिजिटल शिक्षा पर अत्यधिक ज़ोर पहले से ही हाशिये पर खड़े लोगों शिक्षा के दायरे से और बाहर कर देगा। वर्तमान समय में डिजिटल शिक्षा का विकल्प अगर हम नहीं ढूढ़ पा रहे हैं, तो इसमें भी हमारी शिक्षा व्यवस्था का दोष है। शिक्षकों, नागरिक समुदाय के लोगों और बुद्धिजीवियों को एक साथ मिलकर सोचना होगा तभी विकल्प की तलाश पूरी हो पायेगी।”



इससे पहले, वेबिनार में शामिल सभी लोगों का स्वागत करते हुए राईट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अम्बरीष राय ने कहा कि डिजिटल शिक्षा से 80 फीसदी बच्चों के पढ़ाई से अलग होने का खतरा है क्योंकि सभी के पास डिजिटल डिवाइस नहीं हैं ।



श्री राय ने कहा, “डिजिटल पढ़ाई विद्यालय का विकल्प नहीं बन सकता। विद्यालय हमें सामाजिकता का बोध कराता है तथा गैर–बराबरी और  उंच-नीच की भावना को कम करता है।”



वेबिनार का संचालन कर रहे डॉ॰ मनीष जैन ने वक्ताओं की बातों का सार प्रस्तुत करते हुए शिक्षा, व्यक्ति व समाज के अंतर्संबंधों को रेखांकित करते हुए कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं।

उन्होंने कहा, “देश भर से कई स्रोतों से आ रही रपटें बताती हैं कि ऑनलाइन लर्निंग के पाठ्यक्रम और सत्र बच्चों और अभिभावकों दोनों के लिए कितने कष्टप्रद साबित हो रहे हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में भी मुश्किल से 50 फीसदी बच्चे ही डिजिटल प्लेटफॉर्म से जुड़ पा रहे हैं। डिजिटल शिक्षा की बढ़ती पैरोकारी पर दो टूक टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि शिक्षा एक राजनीतिक मसला है और हमें देखना होगा कि यह राजनीति जनसरोकारों से जुड़ी है या नहीं। शिक्षा के लिए राज्य की जवाबदेही को लोकतान्त्रिक मायनों में देखने की जरूरत है। शिक्षा के विभिन्न हितधारकों (स्टेकहोल्डर्स) की लोकतान्त्रिक भागीदारी के बगैर  सिर्फ तकनीक और प्रबंधन के जरिये कुछ लोगों को सूचनात्मक जानकारियाँ उपलब्ध करा देना शिक्षा नहीं है। शिक्षा के बुनियादी ढांचे में अपेक्षित निवेश और हाशिये के हिस्सों के लिए सामाजिक पायदानों पर ऊपर चढ़ने की सीढ़ियों को सहज-स्वाभाविक बनाए बगैर हम सर्वांगीण सामाजिक विकास और शिक्षा के मूल उद्देश्यों की तरफ एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते। शिक्षा, हाशिये पर मौजूद लोगों के सशक्तीकरण, एक बेहतर गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को हासिल करने का एक सशक्त औज़ार है। क्या डिजिटल लर्निंग शिक्षा के इन बुनियादी उद्देश्यों को पूरा कर सकेगा? अगर नहीं, तो हम ऐसी किसी भी तात्कालिक गतिविधि को नियमित शिक्षा का विकल्प बनाने के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं?”

डॉ॰ मनीष जैन ने प्रतिभागियों की तरफ से आए कुछ अहम सवालों को भी को भी चर्चा-सत्र के दौरान रखा। वेबिनार में देश भर से तकरीबन 325 प्रतिभागियों ने शिरकत की।

मित्ररंजन
मीडिया समन्वयक
आरटीई फोरम
मो॰- 9717965840

1 comment:

Unknown said...

The STARS project must be stopped