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Monday, October 10, 2022

वो छह वजहें जो बताती हैं कि क्यों भारत जोड़ो यात्रा सिर्फ सियासी तमाशा भर नहीं- Dr. Yogendra Yadav

 वो छह वजहें जो बताती हैं कि क्यों भारत जोड़ो यात्रा सिर्फ सियासी तमाशा भर नहीं

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राजनीति भी फुटबॉल के खेल की तरह है: गेंद पर पकड़ मायने रखती है. गेंद पर पकड़ इतनी मजबूत है इस बार कि राजस्थान में चला सियासी संकट भी भारत जोड़ो यात्रा की सकारात्मकता को नहीं तोड़ पाया.



एक तस्वीर आयी और उस तस्वीर के सहारे लोगों ने देख लिया कि भारत जोड़ो यात्रा अपने भीतर एक अंतर्धारा लिए चल रही है. बारिश की मूसलाधार के बीच लोगों को संबोधित करते राहुल गांधी और प्लास्टिक की कुर्सियों को सिर पर छाते की तरह तानकर राहुल को पूरे ध्यान से सुनते हजारो लोग ! इस एक तस्वीर ने यात्रा के संदेश को हजारो समाचारों से कहीं ज्यादा बेहतरी से दर्ज किया. हो सकता है, यात्रा अबतक वायरल ना हुई हो लेकिन यह तस्वीर वायरल हो चुकी है.


इससे पता चलता है कि अभियान(भारत जोड़ो यात्रा) को लेकर लोगों के मनोभाव में एक महीन बदलाव आया है. भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत बेशक नरम रही. हमने जब 7 सितंबर को कन्याकुमारी से यात्रा शुरु की थी तो लोग-बाग इस यात्रा को लेकर अनजान थे, कुछ के मन में आशंकाएं थीं तो कुछ में चिड़चिड़ेपन का भाव. मुझे याद है, एक वरिष्ठ पत्रकार का फोन आया था. वे जानना चाह रहे थे कि क्या सचमुच ही पदयात्रा हो रही है. किसी को पता ना था कि दरअसल, यात्रा हो किस बात पर रही है. ‘ क्या सचमुच ये कांग्रेसी नेता पैदल चलेंगे? क्या राहुल गांधी इस यात्रा में जब-तब किसी मेहमान की तरह आकर प्रतीकात्मक भागीदारी करेंगे ? या फिर, वे सचमुच पूरी यात्रा में मौजूद रहेंगे, पूरी यात्रा पैदल तय करेंगे ?’


‘ क्या कांग्रेस की यह यात्रा बहुत अच्छी हुई तो रोड-शो और जो बहुत बुरी हुई तो एक तमाशे का प्रतिरूप बनकर नहीं रह जायेगी?’ मुझे याद है, यात्रा के शुरुआती दिन से ऐन पहले कुछ पारिवारिक हित-मीत मिलने आये थे. आशंकाएं जैसे उनके चेहरे पर तैर रही थीं. ‘ योगेन्द्र जी, आप अपनी साख का जोखिम उठा रहे हैं. हम जानते हैं, आप कांग्रेस से नहीं जुड़ने वाले, लेकिन क्या इस पार्टी के साथ किसी भी किस्म का जुड़ाव एक आत्मघात की तरह नहीं है?’ हमारे उन हितैषियों ने पूछ लिया था.


‘एक शुभ है` जो हुआ चाहता है


भारत जोड़ो यात्रा के पहले माह में कोई चीज बदली है. देश का मनोभाव बदला है—ऐसा कहना तो खैर जल्दीबाजी होगी. लेकिन, इसमें कोई शक नहीं कि यात्रा से किसी शुभ की शुरुआत हुई है. यह बात मुझे बार-बार सुनने को मिल रही है. भारत जोड़ो यात्रा आये दिन चलने वाला राजनीतिक तमाशा नहीं है— ऐसा मानने के छह कारण मैं यहां लिख रहा हूं.


पहली बात तो यही कि यह कोई प्रतिक्रिया में चलाया गया अभियान नहीं बल्कि एक सकारात्मक सोच से चलाया जा रहा अभियान है. बड़े लंबे समय के बाद संभव हुआ है कि प्रमुख विपक्षी दल सकर्मक सोच और सकारात्मक भाव से जमीनी स्तर पर कोई अभियान चला रही है, अपना अजेंडा तय करने की कोशिश कर रही है. बहुत दिनों बाद पहली बार हो रहा है ऐसा कि प्रमुख विपक्षी दल ने भारतीय जनता पार्टी को प्रतिक्रिया में कुछ करने के लिए मजबूर कर दिया है. यह केवल संयोग मात्र नहीं कि इस यात्रा के शुरु होने के पहले ही माह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुस्लिम उलेमा से रिश्ते गांठने और बेरोजगारी, गरीबी तथा गैर-बराबरी के मसले पर अपना पक्ष बताने-जताने में जी जान से जुट गई – याद करें कि यही मुद्दे तो इस यात्रा से भी उभरे हैं. राजनीति भी फुटबॉल के खेल की तरह है: यह बात बड़ा मायने रखती है कि गेंद पर किसने पकड़ बना रखी है. और, गेंद पर यह पकड़ कुछ इतनी मजबूत दिखी कि राजस्थान में संकट झेल रही कांग्रेस को लेकर बनते समाचारों से भी भारत जोड़ो यात्रा से पैदा सकारात्मकता दो दिनों से ज्यादा बेपटरी नहीं हो पायी.


दूसरी बात, यह सिर्फ यात्रा नहीं है—यह पदयात्रा है. पैदल चलना गहरे सांस्कृतिक अर्थों से भरा राजनीतिक कर्म है. पदयात्रा किसी तप की तरह है और इसके भीतर अपने संकल्प को स्वीकार और सिद्ध करने की कर्मठता होती है. कांवड़ यात्रा हो, अमरनाथ यात्रा और नर्मदा यात्रा हो या फिर भारत में चली हजारो सामाजिक तथा राजनीतिक यात्राएं—आप किसी का नाम लीजिए, सबमें एक सी बात पाइएगाः पदयात्रा, पैदल चलने वाले और उस यात्रा को देखने वाले के बीच एक पुल का काम करती है, दोनों को आपस में जोड़ देती है.


पदयात्रा को देख रही जनता खुद भी, अपने देखने मात्र से ही सहयात्री बन जाती है. इसके अतिरिक्त पदयात्रा संवाद स्थापित करने का एक वैकल्पिक साधन है— इसमें आप कर्मरत होने मात्र से संवाद करते हैं, आप नहीं बोलते मगर आपका काम बोलता है.


पदयात्रा को देख रही जनता खुद भी, अपने देखने मात्र से ही सहयात्री बन जाती है. इसके अतिरिक्त पदयात्रा संवाद स्थापित करने का एक वैकल्पिक साधन है— इसमें आप कर्मरत होने मात्र से संवाद करते हैं, आप नहीं बोलते मगर आपका काम बोलता है.


तीसरी बात, पदयात्रा कोई आभासी प्रतिरोध नहीं है. इसमें सचमुच ही अपने पैर जमीन पर रखने होते हैं, पदयात्रा ताकत की साकार अभिवयक्ति है. चूंकि बीजेपी-आरएसएस की वैधता इस एक दावे पर टिकी हुई है कि उसे जनता-जनार्दन का समर्थन हासिल है, सो प्रतिरोध का कोई भी कर्म हो उसे लोगों के बीच जाकर और जमीन पर पैर जमाकर ही अपनी शक्ति साबित करनी होगी. चूंकि आज की तारीख में हर आलोचक को अकेला बना दिया गया है, इस नाते एकजुटता की किसी भी अभिव्यक्ति के लिए अभी लोगों का एकट्ठ दिखाना जरुरी है. हजारों लोगों का एकजुट जत्था सड़कों पर चले तो यह खुद में प्रतिकार की एक ताकतवर अभिव्यक्ति बन जाता है. संसद जब मौन कर दी जाये तो आपको सड़क पर खड़े होकर `जागते रहो` की आवाज लगानी होती है.


चौथी बात, लोगों का यह कोई लामबंद किया हुआ नहीं है; यात्रा ने सचमुच ही लोगों के दिल पर दस्तक दी है. इसमें कोई शक नहीं कि यात्रा के बहुत से भागीदारों को कांग्रेस पार्टी तथा उसके नेताओं ने लामबंद किया है, लामबंद हुए ऐसे लोगों में वे भी शामिल हैं जिन्हें पार्टी का टिकट चाहिए. लेकिन, एक बात यह भी है कि पदयात्रा के दौरान तीन राज्यों से गुजरते हुए मुझे लोगों के चेहरों पर खिलती मुस्कुराहटों में अनेक भावों के दर्शन हुए हैं. ऐसी हर मुस्कुराहट के पीछे कौन सा भाव तैर रहा है यह जान पाना तो ब़ड़ा कठिन है लेकिन मेरे आगे यह स्पष्ट हो चला है कि इस यात्रा ने आशाएं जगायी हैं. कुछ लोग इस यात्रा से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े हैं, साथ चल रहे हैं या फिर सहायक सिद्ध हो रहे हैं, समर्थन दे रहे हैं. लेकिन, इनके अलावे भी बहुत से लोग हैं जिनके मन में इस यात्रा को लेकर सराहना और समर्थन के भाव हैं. यही वजह है कि बीजेपी के आईटी सेल ने कलंक लगाने की बारंबार कोशिश की तो भी यात्रा से लोगों के मन में उठा ज्वार मंद नहीं पड़ा.


पांचवीं बात, यह यात्रा सिर्फ सेकुलरवाद के मुद्दे तक सीमित नहीं. भारत जोड़ो यात्रा ने यह संदेश फैलाया है कि आज कई रुप-रंग की एकजुटता की जरुरत है. साथ ही, इस यात्रा से लोगों के बीच यह संदेश भी जा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था लगातार ढलान पर जा रही है, कि उसे संभालने की जरुरत है. राहुल गांधी अपने रोजाना के संबोधन में लोगों से यही कहते हैं कि जाति, भाषा और धर्म-संप्रदाय के बंधनों से ऊपर उठते हुए कई स्तरों पर एकजुट होने की जरुरत है. उनके भाषणों में नरेन्द्र मोदी सरकार की आलोचना के क्रम में यह बात बेशक आती है कि यह सरकार देश में नफरत की राजनीति चला रही है, हिन्दू और मुसलमान को अलगा रही है लेकिन राहुल के भाषणों में मोदी सरकार की आलोचना इस एक बिन्दु तक सीमित नहीं रहती. राहुल ने लगातार और पुरजोर ढंग से बेरोजगारी, महंगाई, नोटबंदी, वस्तु एवं सेवा कर(जीएसटी) तथा लचर होती प्रशासन-व्यवस्था का सवाल उठाया है. मुख्यधारा के राजनेताओं में वे उन इने-गिने चेहरों में एक हैं जिसने याराना पूंजीवाद(क्रोनी कैपिटलिज्म) पर प्रहार करने में कभी संकोच नहीं किया. यह यात्रा, बिछाये गये फांस-फंदो फंसे बैगर अपना संदेश आप गढ़ रही है.


इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि यह यात्रा सिर्फ कांग्रेसजन की यात्रा नहीं है. भारत जोड़ो यात्रा को ऐसे कई जन-आंदोलनों और संगठनों, जन-बुद्धिजीवियों तथा गणमान्य नागरिकों का समर्थन हासिल है जिनका अतीत में कांग्रेस से वैसा कोई राग-लगाव नहीं रहा. (इन पंक्तियों का लेखक इस समन्वय से सक्रिय रुप से जुड़ा है). ऐसे लोग जो आमतौर पर कोई राजनीतिक पक्ष नहीं लेते या फिर ऐसे लोग जो पहले कभी कांग्रेस के समर्थन में नहीं दिखे वे भी इस बार यात्रा के समर्थन में खुलकर सामने आ रहे हैं. इसे कांग्रेस से जुड़ाव या कांग्रेस के नेतृत्व के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. दरअसल, कांग्रेस से जुड़ाव ना रखने वाले लोग भी इस यात्रा से जुड़ रहे हैं तो इसलिए कि यह यात्रा एक नैतिक भावबोध जगाने में सफल हो रही है.


बीते मंगलवार को मैं उन्हीं पारिवारिक दोस्तों से मिला जिन्होंने मुझे खबरदार किया था कि साख का जोखिम ना उठाइए. इस बार मित्रों के चेहरे पर राहत के भाव थे. ‘ कुछ तो हो रहा है ‘, उनकी मुस्कुराहट उनके शब्दों से कहीं ज्यादा खुलकर बोल रही थी. ‘हां ,’ मैंने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, ‘बस जो अंतर्धारा चल रही है, उसे लहर मत समझ लीजिएगा क्योंकि पिक्चर अभी बाकी है.’

                ~ योगेन्द्र यादव

शील, करुणा और मैत्री का ‘संगम’ है भारत का स्वधर्म- Dr. Yogendra Yadav

 इस लेख की पिछली दो कडिय़ों में देश की वर्तमान अवस्था को भारत के स्वधर्म की रोशनी में परखने का आग्रह किया गया है। आज जो हो रहा है वह सही है या गलत, गर्व का विषय है या शर्म का, इसका फैसला हम अपने-अपने आग्रह-दुराग्रह के आधार पर नहीं कर सकते। इसे हम केवल किसी बनी-बनाई या उधार ली विचारधारा की कसौटी पर नहीं कस सकते, किसी ग्रंथ या ईष्ट देवता के शब्दों से नहीं नाप सकते। 


किसी देश की यात्रा को जांचने-परखने का पैमाना उसका स्वधर्म ही हो सकता है। पहले धर्म और स्वधर्म की व्याख्या के बाद लेख की पिछली कड़ी इस निष्कर्ष पर  पहुंची थी कि भारत गणराज्य का स्वधर्म न तो प्राचीन भारतीय ग्रंथों में है, न ही यूरोप की आधुनिक विचारधाराओं में। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हमारी सभ्यता की धरोहर और पश्चिमी विचारों के बीच संवाद और संघर्ष की ऐतिहासिक प्रक्रिया से भारत गणराज्य का स्वधर्म निर्मित हुआ। 


अब पूछ सकते हैं कि इस प्रक्रिया से उपजा भारत का स्वधर्म आखिर है क्या? अगर सार रूप में कहें तो भारतीय सभ्यता के शाश्वत मूल्यों में से तीन-शील, करुणा और मैत्री के त्रिवेणी संगम में भारत का स्वधर्म खोजा जा सकता है।  26 जनवरी, 1950 को भारत गणतंत्र बना था, उसकी जड़ें उस दिन अंगीकृत किए गए आधुनिक संविधान या औपनिवेशिक राज के दौरान आधुनिक पश्चिम के विचारों तक सिमटी हुई नहीं हैं। भारतीय गणतंत्र के आदर्शों में कम से कम तीन हजार साल की हमारी विचार परंपरा से उपजे तीन आदर्श प्रतिङ्क्षबबित होते हैं। लेकिन यह तीनों आदर्श अपने प्राचीन स्वरूप में हमारे संविधान में दोहराए नहीं गए हैं। 


आजादी के आंदोलन के दौरान इन आदर्शों की सफाई की गई, और आधुनिक यूरोप के तीन आदर्शों से इनका गहरा संवाद हुआ। फ्रांसीसी क्रांति के स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के उद्घोष को भारतीय मानस ने अपने तरीके से सुना। बीसवीं सदी की उदारवाद, समाजवाद और सैकुलरवाद की विचारधाराओं को अपनी वैचारिक छलनी से छाना। इस मंथन से लोकतंत्र, कल्याणकारी राज्य और सर्वधर्म समभाव की देसी लेकिन आधुनिक समझ बनी। 


मैत्री की अवधारणा का स्पष्ट निरूपण बुद्ध धर्मदर्शन में हुआ है। मैत्री महज दोस्ती या स्नेह नहीं है। मैत्री का सौहार्द तृष्णावश नहीं होता, बल्कि परोपकार के लिए होता है। मैत्री का स्नेह मोहवश नहीं होता किन्तु ज्ञानपूर्वक होता है। मैत्री का स्वभाव अद्वेष है और यह अलोभ-युक्त होता है। जीवों का उपकार करना, उनके सुख की कामना करना, द्वेष और द्रोह का परित्याग, इसके लक्षण हैं। यह केवल व्यक्तिगत आदर्श नहीं है, इस आदर्श को हमारी परंपरा में राजधर्म का रूप दिया गया। अशोक और अकबर के राज में सभी धर्मावलम्बियों के प्रति समभाव की परंपरा इसी आदर्श से प्रेरित है। बाबा साहब अम्बेडकर ने स्पष्ट किया था कि उनके लिए बंधुत्व का आदर्श बुद्ध दर्शन में मैत्री की अवधारणा से प्रेरित था। 


भारत के संविधान के मूल विचार में आया सर्वधर्म समभाव का विचार (और बाद में इसे दिया गया ‘सैकुलरवाद’ या पंथ निरपेक्षता का नाम) दरअसल पश्चिम के सैकुलरिज्म का अनुवाद नहीं है। हमारे संविधान निर्माता जानते थे कि चर्च-राज्य संबंध की समस्या यूरोप की है, हमारी नहीं। आधुनिक भारत की समस्या है अलग-अलग धर्मावलंबियों के बीच सौहार्द बनाए रखने की। हमारे देश में विविध तरह की धार्मिक विविधता है। यहां अनेक पंथ या मजहब हैं, और अलग-अलग तरह के पंथ या मजहब हैं। 


हमारी जनता की गहरी धार्मिक आस्था है। सभी धार्मिक समुदाय सार्वजनिक रूप से धार्मिक आस्था का व्यवहार और प्रदर्शन करते हैं। इनमें से कई समुदायों का एक-दूसरे से सौहार्द के साथ-साथ झगड़े का इतिहास रहा है। इसलिए हमारी चुनौती है अलग-अलग मत और धर्मावलंबियों के बीच समभाव स्थापित करना, घृणा और हिंसा को रोकना, धार्मिक संस्थाओं का नियमन करना और धार्मिक समुदायों में अंदरूनी कुरीतियों का सुधार करना। इसलिए आस्थाहीन या अनीश्वरवादी सैकुलरवाद हमारी समस्या का समाधान नहीं है। 


भारत के स्वधर्म में है एक सर्वधर्मिता की देशज दृष्टि जो धार्मिकता का सम्मान करती है, सभी पंथों के प्रति समभाव रखती है, जो मैत्री भाव से पैदा होती है और देशधर्मी है। मैत्री के विचार की इस आधुनिक व्याख्या के चलते हमारे संविधान में कोई राज धर्म नहीं है, सभी धर्मावलंम्बियों को समान नागरिकता दी गई है, सभी को धार्मिक स्वतंत्रता के तहत उपासना, धार्मिक आचार-व्यवहार का अधिकार प्राप्त है, प्रत्येक धार्मिक समुदाय को अपनी धार्मिक व्यवस्था और संस्थाएं बनाए रखने का अधिकार है और धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेष सुरक्षा दी गई है। 


इसी तरह करुणा का विचार हमारे संविधान में वॢणत सामाजिक, आॢथक और शैक्षणिक समता के मूल में है। सामान्यत: समता या साम्य के विचार की जड़ें आधुनिक यूरोप के समाजवाद या साम्यवाद में तलाशी गई हैं। पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि प्राचीन भारतीय चिंतन में बराबरी या साम्य  का विचार है ही नहीं। ईश्वर के सामने सब समान हैं, यह विचार तो था लेकिन सांसारिक वस्तुओं और धन-दौलत के बंटवारे के मामले में समता का विचार बिल्कुल नहीं था। लेकिन अगर हम गहरे उतरें तो पाएंगे कि करुणा का विचार हमारी परंपरा में व्याप्त है। 


विनोबा भावे कहते थे, ‘‘जैसे राम की माता कौशल्या और कृष्ण की माता यशोदा थीं, उसी तरह साम्य की माता करुणा हैं।’’ करुणा के अवतार बुद्ध हैं। इस समझ में करुणा का मतलब दया नहीं है। पराए दुख को देखकर सत्पुरुषों के ह्रदय का जो कम्पन होता है उसे ‘करुणा’ कहते हैं। 


मैत्री और करुणा की तरह शील को भी एक व्यक्ति के गुण की तरह देखा गया है। शीलवान यानी उत्तम आचरण वाला व्यक्ति। भारतीय परंपरा में अनेक किस्म के शील की व्याख्या की गई है। लेकिन यह अवधारणा हमें राजतंत्र में राजा और गणतंत्र में गण यानी प्रजा के गुणों की ओर भी ले जाती है। बेशक लोकतंत्र का विचार आधुनिक है, और इसकी संस्थाएं पश्चिमी व्यवस्था से उधार ली गई हैं, लेकिन प्राचीन भारत में राजधर्म और सल्तनत तथा मुगल काल में सुलतान के गुण-दोष की व्याख्या हमारे आधुनिक लोकतंत्र की समझ का आधार है। 


आधुनिक अर्थ में गणतंत्र का अर्थ वह नहीं है जो प्राचीन भारतीय गणतंत्र में था, लेकिन स्वयं बाबा साहब अंबेडकर ने आज की व्यवस्था के लिए प्राचीन गणतंत्र के अनुभव की प्रासंगिकता को रेखांकित किया था। इसीलिए भारतीय लोकतंत्र ने पश्चिमी लोकतंत्र की काया को तो अपना लिया लेकिन उसमें अपने प्राण फूंके। अब हम आखिरी सवाल की ओर बढ़ सकते हैं : क्या पिछले कुछ वर्षों में भारत का बदलता स्वरूप हमारे इस स्वधर्म के अनुरूप है?

               ~ योगेन्द्र यादव

Sunday, October 09, 2022

नहीं रहे सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव, मेदांता हॉस्पिटल में ली अंतिम सांस

 नहीं रहे सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव, मेदांता हॉस्पिटल में ली अंतिम सांस

समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव का निधन हो गया है | मेदांता अस्पताल के क्रिटिकल केयर यूनिट (सीसीयू) में उनका इलाज चल रहा था | यूपी की राजनीति में  मुलायम सिंह यादव का परिवार सबसे बड़ा है | उनकी परिवार के करीब 25 से ज्यादा लोग ऐसे हैं जो राजनीति में सक्रिय हैं |और लोकबंधु राजनारायण के सानिध्य में रहेआइए हम आपको बताते हैं कि मुलायम के जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें | पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव इटावा के सैफई के रहने वाले थे | मुलायम सिंह यादव का जन्म 22 नवम्बर 1939 को इटावा जिले के सैफई गाँव में मूर्ति देवी व सुघर सिंह यादव के किसान परिवार में हुआ था |  वह अपने पाँच भाई-बहनों में रतनसिंह यादव से छोटे थे | उनसे छोटे भाई-बहनों में अभयराम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव, राजपाल सिंह और कमला देवी हैं | प्रोफेसर रामगोपाल यादव इनके चचेरे भाई हैं.उन्‍होंने पहलवानी से अपना करियर शुरू किया | राजनीति में आने से पहले मुलायम सिंह यादव कुछ समय तक इंटर कॉलेज में टीचर भी रह चुके थे | मुलायम सिंह यादव 1967 में पहली बार उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गए | इसके बाद से वह सभी चुनावों में विजयी रहे |  1977 में वह पहली बार उत्तर प्रदेश की जनता पार्टी की सरकार में राज्य मंत्री बने | चरण सिंह के करीबी रहे मुलायम 1980 में लोक दल के अध्यक्ष बने और 1982 में विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष बने | जनता दल की जीत के बाद वह पहली बार 1989 में यूपी के मुख्यमंत्री बने | 1992 में उन्होंने समाजवादी पार्टी का गठन किया और 1993 में दूसरी बार उत्तर प्रदेश के सीएम बने | 2003 में वह तीसरी बार यूपी के सीएम बने | 2004 में उन्होंने गन्नौर विधानसभा सीट पर रेकॉर्ड वोटों से जीत की थी | अपने राजनीतिक जीवन में मुलायम सिंह यादव आठ बार विधायक और सात बार सांसद चुने गए | वह मैनपुरी से छह बार लोकसभा का चुनाव लड़ चुके थे |  1982 से 87 तक विधान परिषद के सदस्य रहे |  1996 से 1998 तक मुलायम सिंह केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री रहे | उन्होंने 1996 में पहली बार मैनपुरी लोकसभा सीट से जीत हासिल की थी |  इसके बाद वह लगातार जीतते रहे | 2019 में उन्होंने आखिरी बार मैनपुरी से जीत हासिल की थी |एक राजनैतिक युग का अन्त



Tuesday, October 04, 2022

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं, गाँधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं- by रामधारी सिंह दिनकर

  समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं

गाँधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है

वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल

विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल


तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना

सावधान! हो खड़ी देश भर में गाँधी की सेना

बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे

मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध


(परशुराम की प्रतीक्षा, 1953)


@ रामधारी सिंह दिनकर

Saturday, October 01, 2022

काश ‘कांग्रेस को मर जाना चाहिए’ याद रखने वाले पढ़ भी लेते कि मैंने यह क्यों कहा था, तो वे आज हैरान न होते-~ योगेन्द्र यादव

 इतिहास के इस मुकाम पर हम अपने आपस के झगड़ों में उलझे नहीं रह सकते. पॉल सैम्युल्सन की तर्ज पर मैं भी सबसे पूछना चाहता हूं, ' जब स्थिति बदलती है तो मैं अपना आकलन बदल लेता हूं लेकिन आप क्या करते हैं, जनाब?'



क्या आपने ये नहीं कहा था कि ‘कांग्रेस को मर जाना चाहिए’? तो फिर, आप अब कांग्रेस के नेताओं के साथ कैसे कदम मिला सकते हैं? आप कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में कैसे शामिल हो सकते हैं?


बीते तीन हफ्तों में मुझे इन सवालों का बारंबार सामना करना पड़ा है. आलोचकों ने चुटकी ली है. मीडियाकर्मी मानकर चल रहे हैं कि मैं इस कठिन सवाल से किसी ना किसी तरह कन्नी काटकर बच निकलूंगा. बेशक यह एक ईमानदार सवाल है और इस नाते इस सवाल का एक सीधा सा जवाब होना चाहिए. लेकिन, यह कोई धोबीपाट जैसा शर्तिया चित्त करने वाला दांव नहीं है, इसमें ‘शह और मात’ जैसी कोई बात नहीं है. न मैने पलटी मारी है, न पाला बदला है, न मेरा हृदय-परिवर्तन हुआ है.


वजह बड़ी सीधी सी है: ऐसी टीका-टिप्पणी करने वाले ज्यादातर लोग मैंने जो कुछ उस वक्त लिखा-बोला था, उसे पूरा पढ़ने की फिक्र नहीं करते और ना ही मैं अभी के वक्त में जो कुछ कह रहा हूं, उसे ही ठीक से सुनते-गुनते हैं. ऐसे लोगों को बस इतना भर याद रह गया है कि इस आदमी ने तो यह तक कह दिया था कि ‘कांग्रेस को मर जाना चाहिए’ और दिखाई देने के नाम पर इन लोगों को बस इतना भर दिख दे रहा है कि यह आदमी तो भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ कदम-ताल कर रहा है. जैसा गणित में लिखते हैं न सवाल के आखिर में कि ‘इस तरह यह प्रमेय सिद्ध हुआ’ है, वैसे ही इन लोगों ने मान लिया है कि बात तो खुद ही साबित है, उसके बारे में और कुछ क्या और क्यों कहना.


‘कांग्रेस को मर जाना चाहिए’ का मतलब तो समझिए !


पहला जरूरी कदम तो यही होगा कि इन पांच शब्दों (कांग्रेस को मर जाना चाहिए) से आप आगे बढ़ें और 19 मई 2019 के मेरे 41 शब्दों के ट्वीट को उसके मूल रुप में पढ़ें. उस ट्वीट में जो कुछ कहा गया था उसका हिन्दी अनुवाद कुछ यों होगा: ‘कांग्रेस को मर जाना चाहिए. अगर वह इस चुनाव में भारत के स्वधर्म को बचाने के वास्ते बीजेपी को नहीं रोक सकती तो फिर इस पार्टी की भारतीय इतिहास में कोई सकारात्मक भूमिका नहीं बची है. आज की तारीख में यह किसी विकल्प को गढ़ने में अकेली सबसे बड़ी बाधा है.’


दो दिन बाद मैंने ट्वीट का विस्तार 1,123 शब्दों के एक आलेख में किया. यह आलेख इंडियन एक्सप्रेस में छपा जिसमें मौत के रुपक को इन शब्दों में बयान किया गया था: ‘वैकल्पिक राजनीति तब तक खड़ी नहीं हो सकती… जबतक कि हम यह मान कर काम न करें कि कांग्रेस तो है ही नहीं. मौत के रुपक को इसी अर्थ में समझना चाहिए.’ मैंने बताया था कि कांग्रेस के अंध-विरोध की आदतवश मैं ये बातें नहीं लिख रहा हूं. लेख में यह पंक्ति भी आई थी, गैरकांग्रेसवाद एक अल्पकालिक राजनीतिक रणनीति थी और इसे विचारधारा के रूप में परिवर्तित नहीं करना चाहिए.’ ऐसा भी नहीं था कि इसमें कांग्रेस नेतृत्व पर कोई निजी हमला बोला गया था. मैंने लिखा था, ‘जिन नेताओं से मैं मिला हूं उनमें राहुल गांधी सबसे ज्यादा ईमानदार हैं और लोग जितना समझते हैं, वे उससे कहीं ज्यादा बुद्धिमान हैं.’ लेकिन, ज्यादातर टिप्पणीकारों ने इन पंक्तियों को पढ़ना जरूरी नहीं समझा.


मेरी आलोचना का मुख्य तर्क बड़ा सीधा सा था, ‘नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी का उदय लोकतंत्र और विविधता के बुनियादी संवैधानिक मूल्यों के लिए खतरा है… प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी दल होने के नाते पहला दायित्व कांग्रेस का बनता है कि वह हमारे गणतंत्र को इस हमले से बचाएं …क्या कांग्रेस ने बीते पांच सालों में यह जिम्मेदारी निभाई है? क्या यह यकीन किया जा सकता है कि कांग्रेस निकट भविष्य में ऐसी जिम्मेदारी निभाएगी? मेरा साफ जवाब है, नहीं. कांग्रेस सिर्फ जिम्मेदारी से भाग ही नहीं रही बल्कि जो लोग गणतंत्र की हिफाजत में कुछ करना चाहते हैं उनके रास्ते की भी बाधा है.’


उस वक्त कांग्रेस के खिलाफ मेरी प्रतिक्रिया इस बुनियादी चिंता से जुड़ी थी कि भारत के स्वधर्म को बचाना है तो कांग्रेस को आगे आना चाहिए, उसे बीजेपी के दुर्दम्य रथ को आगे बढ़कर रोक देना चाहिए. ठीक उसी चिंता के चलते मैं आज भारत जोड़ो यात्रा को अपना समर्थन दे रहा हूं. यह समर्थन बिनाशर्त नहीं हैं. भारत जोड़ो यात्रा को समर्थन देने के लिए 200 एक्टिविस्टस् और बुद्धिजीवियों के साथ मैंने जिस बयान पर हस्ताक्षर किए हैं उसमें भी यह दर्ज है कि संवैधानिक मान-मूल्यों के सामने अप्रत्याशित खतरा आ खड़ा हुआ है और एक शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक प्रतिरोध को खड़ा करने की जरूरत आन पड़ी है. बयान में साफ शब्दों में कहा गया है: ‘भारत जोड़ो यात्रा जैसी पहल को एकवक्ती समर्थन देने का मतलब यह नहीं कि हम लोगों ने अपने को किसी राजनीतिक दल या नेता के साथ जोड़ लिया है. यह आपस के मत-मतान्तर को एक किनारे करते हुए, अपने संवैधानिक गणतंत्र को बचाने के लिए की जा रही किसी भी सार्थक और कारगर पहल को समर्थन देने के संकल्प की अभिव्यक्ति है.’


तब और अब के बीच क्या बदला है?


जाहिर है कि मेरा मूल तर्क नहीं बदला है. तब की तरह अब भी मेरी टेक एक ऐसी राजनीति को खोजने की है जो बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) के हमलों से हमारे संवैधानिक मान-मूल्यों की रक्षा कर सके. तब की तरह अब भी मैं अपनी इस तलाश के पहले पड़ाव के रूप में कांग्रेस को देखता हूं जिसकी अखिल भारतीय स्तर पर मौजूदगी है और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है.


लेकिन जाहिर है इस बीच कुछ न कुछ बदला भी है. कांग्रेस को मैंने अपनी जांच-परीक्षा और पूर्वानुमान के आधार पर खारिज किया था. मैंने तब ये माना था कि कांग्रेस कारगर साबित नहीं हो रही कि दरअसल तो वह अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को निभा पाने में एक बाधा साबित हो रही है. तो फिर, उस समय से आज की तारीख के बीच में क्या बदला है? क्या कांग्रेस बदली है? या मैं ही बदल गया हूं?


क्या 2019 के लोकसभा चुनावों से जुड़ी कांग्रेस की भूमिका की अपनी आलोचना में मैंने कोई बदलाव किया है? जी नहीं. हाल के इतिहास के मेरे अपने पाठ में कोई खास बदलाव नहीं आया है. साल 2019 के चुनाव को जिस तरह हाथ से गंवा दिया गया उसे लेकर अपनी राय, अपनी निराशा और अपने क्षोभ को बदलने का मेरे पास कोई कारण नहीं. मैं 2019 के लिए खुद के साथ-साथ बीजेपी-विरोधी खेमे में जो कोई भी है, सबको दोषी मानता हूं. लेकिन प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी दल होने के नाते कांग्रेस को अपना दोष सबसे ज्यादा मानना चाहिए. यह भी दर्ज करता चलूं यहां मुझे भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन में शामिल होने और इस आंदोलन को पार्टी के रूप में बदलने का फैसला लेने का पछतावा नहीं है. (मैं लिख चुका हूं कि एक चालबाज टोली, पार्टी को अपने साथ ले उड़ी और हम उसे ऐसा करने से नहीं रोक सके, मुझे इस बात का अफसोस है)


तो क्या कांग्रेस पिछले तीन सालों में बदल गई है? क्या मैं कांग्रेस की हमारे गणराज्य की बुनियाद पर हो रहे हमले के खिलाफ उठ खड़े होने की क्षमता पर यकीन करने लगा हूं?


इस सवाल का एक ईमानदार जवाब तो यही होगा कि ‘मैं नहीं जानता…’ शेष बहुत सारे लोगों की तरह मैं भी इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने में लगा हूं. और, यह जवाब सिर्फ कांग्रेस के नेताओं और इस यात्रा के बाकी साथियों के बीच नहीं ढूंढ़ रहा हूं बल्कि आम लोगों के बीच भी इस सवाल का जवाब ढूंढ़ रहा हूं. मैंने गौर किया है कि कांग्रेस के नेता, खासकर राहुल गांधी ने सेकुलरवाद, सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता के मुद्दे पर साफ शब्दों में अपनी बात रखी है. मैं यह भी देख रहा हूं कि कांग्रेस ने अन्य राजनीतिक दलों, आंदोलनों और संगठनों को यात्रा में भागीदारी का निमंत्रण दिया है. मैं जानता हूं कि कांग्रेस का नेतृत्व बीजेपी को टक्कर देना चाहता है— सिर्फ चुनावी मैदान में ही नहीं बल्कि राजनीतिक और विचारधाराई रूप से भी उससे भिड़ जाना चाहता है. लेकिन क्या कांग्रेस ऐसा कर पाएगी या यों कहें कि क्या वो ऐसा कर सकती है? हमारे समय का यक्षप्रश्न भी यही है. जो लोग कांग्रेस में हैं, यह सवाल उनके लिए है. यह सवाल भारत के लिए भी है. इस सवाल का अभी से कोई पुख्ता जवाब नहीं दिया जा सकता.


बीते तीन सालों में जो सबसे बड़ा बदलाव हुआ है, उसका नाम भारत है. साल 2019 में हम लोग निश्चित ही एक बुरे मुकाम पर आ पहुंचे थे लेकिन इसके बाद के समय में जिस गड्ढे में जा गिरे उसकी तुलना में 2019 का वह मुकाम बेहतर ही कहा जाएगा. आज हम एक खाई की कगार पर खड़े हैं— हमारा संविधान, आजादी की लड़ाई की हमारी विरासत और हमारी सभ्यतागत विरासत सब-कुछ दांव पर लगी है. आज सवाल सिर्फ सरकार या लोकतंत्र का नहीं बल्कि भारत के अस्तित्व का है…यह अस्तित्व ही हमले की जद में है. जब घर में आग लगी हो तब दो ही पक्ष होते हैं: वह जो पानी की बाल्टी लेकर खड़े हैं और वह जो पेट्रोल की बोतल लेकर खड़े हैं. इतिहास के इस मुकाम पर हम अपने पुराने द्वेष और झगड़ों-टंटों में नहीं उलझे रह सकते. सैम्युल्सन (ना कि कीन्स) की तर्ज पर पर मैं भी हर किसी से पूछना चाहता हूं: ‘जब स्थिति बदलती है तो मैं अपना आकलन बदल देता हूं. आप क्या करते हैं, जनाब ?’


मृत्यु या पुनर्जन्म?


लेकिन दिख रहे लक्षण के हिसाब से आगे के वक्तों के बारे में क्या कुछ कहा जा सकता है? मैंने तो लक्षण के तौर पर इस बात की पहचान की थी कि कांग्रेस किसी विकल्प के गढ़ने में प्रमुख बाधा है. इस सोच में एक पूर्व मान्यता थी कि एक गैर-कांग्रेसी, बीजेपी-विरोधी राजनीति विकल्प के रूप में उभरेगी. पिछले तीन सालों में यह उम्मीद फलीभूत नहीं हो सकी है. सच यह है कि हम सभी लोग जो वैकल्पिक राजनीति पर यकीन करते हैं, ऐसा कोई राजनीतिक साधन नहीं तैयार कर सके हैं जो नैतिक भी हो और कारगर भी. कुछ क्षेत्रीय दलों ने बीजेपी को टक्कर देने के दमदार तरीके अपनाए हैं लेकिन इन दलों ने राष्ट्रीय स्तर पर कोई वैकल्पिक मंच तैयार नहीं किया. जन-आंदोलनों के पास ऊर्जा और साहस तो भरपूर है लेकिन बीजेपी को चुनावी मैदान में टक्कर दे सकने लायक विस्तार उनके पास नहीं है. अगले दो सालों के लिए कांग्रेस और मुख्यधारा के अन्य दल ही हमारे गणतंत्र की रक्षा के मुख्य साधन हैं. यहां मैं पूरी ईमानदारी से यह दर्ज करता चलूं कि इंडियन एक्सप्रेस में छपे मेरे लेख की आलोचना में ठीक यही बात प्रोफेसर सुहास पळशीकर ने लिखी थी. हमेशा की तरह उनकी लिखी आलोचना एक बार फिर से भविष्यदर्शी साबित हुई.


आखिर में एक बात और. जिन लोगों को मेरा लिखा याद रह गया है कि ‘कांग्रेस को मर जाना चाहिए’ वे इस बात को भूल जाते हैं कि मैंने अपने लेख का अंत किन शब्दों में किया था. मैंने कल्पना की थी कि कांग्रेस के भीतर और बाहर की ऊर्जा आपस में मिलकर एक नया विकल्प गढ़ सकती है.


‘मृत्यु का यह स्याह रूपक नए जन्म के बारे में सोचने का एक निमंत्रण है? या कि एक पुनर्जन्म का?’ ‘ क्या भारत जोड़ो यात्रा को हम पुनर्जन्म के उसी संभावित क्षण के रूप में देख और सोच सकते हैं?

               ~ योगेन्द्र यादव

बोहनी तो अच्छी हुई, लेकिन सफर लम्बा है~ योगेन्द्र यादव

 यात्रा कैसी चल रही है? कुछ असर दिखाई दिया? चुनाव में फायदा होगा? कुछ हासिल होगा भी या नहीं? जब से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कन्याकुमारी से रवाना हुई है तब से फोन बजने शुरू हो गए हैं। जाने-पहचाने सवालों की झड़ी लग गई है। सुनता हूं कि टी.वी. पर भी तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गई है। यात्रा से क्या हासिल होगा यह इस पर निर्भर करता है कि इसके पीछे इरादा क्या है। पदयात्रा कई तरह की हो सकती है। किसी के लिए सैर-सपाटा है तो किसी के लिए कसरत। घुमंतु समाज के लिए जीवन शैली है तो फेरी वाले के लिए धंधा। कुछ लोग कोई मन्नत या आकांक्षा लिए चलते हैं तो कोई दर्शन की अभिलाषा में। कुछ ही होते हैं जो अपने भीतर के ईश्वर को ढूंढने के लिए पैदल यात्रा करते हैं। 


यही बात राजनीतिक पदयात्राओं पर लागू होती है। यहां भी कुछ सैलानी होते हैं, कुछ दर्शन के अभिलाषी तो कुछ टिकट के। हमारे यहां चुनावी पदयात्राओं का इतिहास भी काफी पुराना है। हमारे यहां कुछ ऐसी पदयात्राएं भी हुई हैं जिनके माध्यम से देश ने अपने आप को पहचाना है, अपना खोया आत्मबल हासिल किया है। 


जाहिर है ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में इन सबका थोड़ा-बहुत अंश है। जाहिर है देश की एक बड़ी पार्टी द्वारा प्रायोजित ऐसी यात्रा में सैलानी भी होंगे तो पहलवान भी, टिकट अभिलाषी भी होंगे और दर्शनाभिलाषी भी। जाहिर है इस यात्रा की सफलता-असफलता को इन छोटी आकांक्षाओं के तराजू पर नहीं तौला जा सकता। जाहिर है राजनीति के पंडित इसे कांग्रेस पार्टी या राहुल गांधी के नफे-नुक्सान की कसौटी पर कसेंगे। जाहिर है किसी एक पार्टी या नेता का लाभ देशहित का पैमाना नहीं हो सकता। 


आज के संदर्भ में भारत जोड़ो यात्रा की सफलता का एक ही पैमाना हो सकता है। क्या यह यात्रा देश के भविष्य पर छाए काले बादलों को छांटने में मदद कर सकती है? क्या हमारे लोकतंत्र, संविधान, स्वतंत्रता आंदोलन और सभ्यता की विरासत को बचाने में कुछ योगदान कर सकती है? राजनीतिक शक्ति के संतुलन को कुछ डिग्री ही सही, देश जोडऩे वालों के पक्ष में कर सकती है? मुझ जैसे लोग इसी अपेक्षा के साथ इस यात्रा से जुड़े हैं। देश के इतिहास के इस नाजुक दौर में हो रही इस यात्रा को और किसी दृष्टि से देखना गहरी लापरवाही होगी। 


कोई 5 महीने चलने वाली इसी यात्रा के बारे में पहले 5 दिन के आधार पर निष्कर्ष निकालना तो मजाक होगा, लेकिन इस पहली झलकी के आधार पर कुछ अपेक्षाएं बांधी जा सकती हैं। पहले सप्ताह में यह यात्रा तमिलनाडु के कन्याकुमारी और केरल के तिरुवनंतपुरम जिलों से गुजरी है। दोनों कांग्रेस के अपेक्षाकृत मजबूत इलाके हैं। इसलिए यात्रा को मिले विशाल जनसमर्थन से हैरानी नहीं होती। लेकिन यह गौरतलब है कि लगभग पूरा समय सड़क के दोनों तरफ इस यात्रा का स्वागत करने के लिए लोग खड़े थे, कई बार तो घंटों तक। जाहिर है इस जनसमूह में बहुसंख्यक लोग पार्टी कार्यकत्र्ताओं द्वारा जुटाए गए होंगे। वैसे यह भी एक उपलब्धि है। 


कुछ तमाशबीन भी दिख रहे थे। लेकिन इस जनसमूह का एक हिस्सा उन साधारण लोगों का भी था जो किसी पार्टी से जुड़े नहीं थे, जो स्वयं आए थे, जुटाए नहीं गए थे। इन लोगों की आंख में वह चमक थी जो अंधकार में एक छोटी-सी आशा देखने पर आती है। इन्हें अभी से कांग्रेस के समर्थक या वोटर न मान लें। हो सकता है यह एक पदयात्रा के प्रति आदर भाव हो, जो हमारे संस्कार का हिस्सा है। आने वाले कुछ दिनों में यह समझ आएगा, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इस यात्रा ने एक सकारात्मकता जगाई है। इसका चुनावी प्रतिफल क्या होगा, अभी नहीं कहा जा सकता। गुजरात और हिमाचल के चुनाव पर तो बिल्कुल ही नहीं। लेकिन इस सकारात्मकता में कहीं न कहीं राजनीतिक विकल्पहीनता के माहौल को तोडऩे की क्षमता है।


अभी से इस यात्रा के देश के मिजाज पर असर की बात करना बेमानी होगा। लेकिन एक बात तय है। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी द्वारा ली गई इस पहलकदमी ने देश में चुप्पी और एकाकीपन के एहसास को तोड़ा है। इस यात्रा के समर्थन में वे तमाम लोग आए हैं जिन्होंने कभी कांग्रेस का समर्थन नहीं किया, जिन्होंने सड़क पर कांग्रेस सरकारों का विरोध किया है। कन्याकुमारी से ही देश के जनांदोलनों की एक टुकड़ी इस पदयात्रा में शामिल रही है। 


इस बाहरी और अप्रत्याशित समर्थन से खुद कांग्रेस के पदयात्रियों का हौसला बढ़ा है। पिछले हफ्ते भर में इस यात्रा से जुडऩे की ख्वाहिश रखने वालों के संदेश बढ़ते जा रहे हैं। कम से कम एक छोटे दायरे में तो यह एहसास हो रहा है कि हम अकेले नहीं हैं। देश बदलने की बात तो अभी से बहुत बड़ी होगी, लेकिन देश जोडऩे की चाहत रखने वालों में खुद को बदलने की शुरूआत हो चुकी है। बोहनी तो अच्छी हुई है।

                ~ योगेन्द्र यादव

क्या देश का स्वधर्म हो सकता है, कहां खोजें उसे- योगेन्द्र यादव

 हम किस आधार पर कह सकते हैं कि आज भारत के स्वधर्म पर हमला हो रहा है? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए इस लेख की पहली कड़ी में मैंने स्वधर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया था। मेरा प्रस्ताव था कि स्वधर्म हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति का वह अंश है, जिसे हम श्रेयस्कर मानकर अपनाना चाहते हैं। इस अर्थ में स्वधर्म को खोजना और फिर उसका पालन करना मानव जीवन का आदर्श है। अब सवाल उठता है कि क्या किसी देश का स्वधर्म हो सकता है? अगर सतही तरीके से सोचें तो यह धारणा अटपटी लगती है।


धर्म वह है जो धारण किया जाए। धारण करने के लिए चेतना युक्त धारक चाहिए। इसलिए एक व्यक्ति का धर्म हो सकता है, जानवर और पेड़-पौधे का भी। लेकिन देश जैसी अचेतन इकाई का धर्म कैसे हो सकता है? देश अगर मानचित्र पर अंकित रेखा है तो उसका इतिहास और मौसम तो हो सकता है, लेकिन धर्म हो नहीं सकता। धर्म का अर्थ अगर सिर्फ रिलीजन या मजहब है तो देश का धर्म होना नहीं चाहिए। अंग्रेजी के शब्द ‘रिलीजन’ का गलत अनुवाद ‘धर्म’ करने की वजह से यह भ्रांति पैदा होती है।


किसी इष्ट देवता या उपासना पद्धति की मान्यता को पंथ कहना चाहिए, धर्म नहीं। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई अलग-अलग पंथ के नाम हैं। जाहिर है किसी एक पंथ की मान्यता के अनुरूप उसके अनुयायियों का अपना धर्म हो सकता है, लेकिन किसी एक पंथ या जाति के धर्म को पूरे देश पर आरोपित नहीं किया जा सकता। दुनिया में जहां-जहां एक बहुपंथिक देश में एक पंथ की मान्यता को देश का स्वधर्म मानने की भूल की गई, वह देश कमजोर हुआ है, टूटा है। लेकिन एक विशेष अर्थ में देश का स्वधर्म हो सकता है।


अगर देश एक राजनीतिक समुदाय है तो उसका स्वधर्म हो सकता है, होना जरूरी है। अगर चेतन व्यक्ति का धर्म होता है, तो चेतन व्यक्तियों के समूह का धर्म भी होगा। इसलिए एक राजनीतिक समुदाय के निर्माण की प्रक्रिया देशधर्म के निर्धारण की कुंजी है। एक व्यक्ति के स्वधर्म में ‘स्व’ के आयाम उसकी नश्वर देह, उसके जन्म के संयोग (परिवार, जाति/श्रेणी) से परभाषित होंगे और ‘धर्म’ उसके मन, वचन और कर्म को मर्यादित करेगा। देश जैसे किसी समुदाय का स्वधर्म दीर्घायु होता है-काल और स्थान के अनुरूप परिभाषित होता है, राष्ट्रीय मर्यादा को परिभाषित करता है।


देश के स्वधर्म की पहचान करना और इतिहास चक्र को उसके अनुरूप मोडऩा सच्चा पुरुषार्थ है, अगर ‘पुरुष’ को सिर्फ मर्द के अर्थ में न समझें। अब सवाल उठता है कि देश का स्वधर्म कहां खोजा जाए? यह बहुत गूढ़ सवाल है। जो देश बनते ही किसी विचार पर हैं, उनका स्वधर्म स्पष्ट और लिखित रूप में उपलब्ध होता है। हालांकि वहां भी मामला आसान नहीं है। मिसाल के तौर पर इसराईल को लें। यह देश यहूदी विचार और जातीय अस्मिता के इर्द-गिर्द बना है। लेकिन वहां भी उस जमीन के मूल निवासी फिलस्तीनी लोग इस विचार से अछूते हैं।


एक जमाने में सोवियत संघ भी एक विचार आधारित देश था, लेकिन जब बिखरा तो वह विचार उसे बांध नहीं सका। इस्लाम के नाम पर बना पाकिस्तान अपने ही बांग्ला भाषियों को जोड़ कर नहीं रख पाया। स्वधर्म हमें सिर्फ दस्तावेजों, लिखित आदर्शों या फिर विचारधाराओं की भाषा में नहीं मिलेगा। देश के स्वधर्म की तलाश हमें जनमानस से शुरू करनी होगी। प्रत्येक देश के जनमानस में कुछ आदर्शों की एक बुनावट होती है, जो उसे एक अनूठा चरित्र देती है।


यह सामान्य जनमत नहीं है, चूंकि अमूमन जन सामान्य इन आदर्शों के अनुरूप विचार और व्यवहार नहीं करते। इसलिए जनमत सर्वेक्षण से काम नहीं चलेगा। इस जनमानस पर सदियों की सांस्कृतिक छाप होती है। लेकिन यह सीधा किसी प्राचीन सनातन परंपरा या ग्रंथ में लिखा नहीं मिलेगा। न ही आधुनिक राष्ट्र राज्य की नकलची भाषा में हमें बना-बनाया भारत का स्वधर्म मिलेगा। भारतीय गणराज्य के स्वधर्म की जड़ें भारतीय सभ्यता के सांस्कृतिक मूल्यों में हैं। लेकिन यह प्राचीन सांस्कृतिक आदर्श एक आधुनिक राजनीतिक समुदाय के आदर्श नहीं थे।


आधुनिक भारत राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में इन पुरातन आदर्शों का नवीनीकरण और परिष्करण हुआ। आधुनिक भारत के गठन के समय हमारे मानस का हमारी सांस्कृतिक विरासत से जो रिश्ता बना, उसमें और यूरोप के आधुनिक चिंतन में जो संगम हुआ, वहां भारत गणराज्य का स्वधर्म मिलेगा। देशज आधुनिकता की जो व्याख्या आधुनिक भारतीय राजनीतिक ङ्क्षचतन में हुई, उसमें भारत का स्वधर्म मिलेगा।हमारे यहां औपनिवेशिक आधुनिकता के दखल से राजनीतिक समुदाय का चरित्र बदल गया और राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई।


यहां पुराना देश धर्म बुनियादी रूप से बदल गया। सभ्यता के धर्म को देश धर्म का स्वरूप दिया गया। हमारे संविधान का असली महत्व केवल इस बात में नहीं है कि वह हमारे गणराज्य का बुनियादी दस्तावेज है, बल्कि यह आधुनिक संदर्भ में हमारे सभ्यता के मूल्य की पुन:परिभाषा का कपड़ा छान निचोड़ है। संविधान ने हमारी देशज आधुनिकता को सूत्रबद्ध किया है। यह स्वधर्म जड़ और शाश्वत नहीं है। हमारा स्वधर्म प्रवाहमान है। देशधर्म कभी शाश्वत नहीं होता, काल के अनुरूप बदलता है।


देशधर्म का कालखंड राज्य सत्ता के युग परिवर्तन से परिभाषित होता है। औपनिवेशिक भारत का युगधर्म अलग था, स्वतन्त्र भारतीय गणतंत्र का युगधर्म अलग है। साथ ही यह वैश्विक शक्तियों के काल चक्र से भी प्रभावित होता है। इस लेख की अगली कड़ी में हम देखेंगे कि आधुनिक भारतीय गणराज्य के स्वधर्म के तीन बुनियादी सूत्र क्या हैं।

            ~ योगेन्द्र यादव