वो छह वजहें जो बताती हैं कि क्यों भारत जोड़ो यात्रा सिर्फ सियासी तमाशा भर नहीं
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राजनीति भी फुटबॉल के खेल की तरह है: गेंद पर पकड़ मायने रखती है. गेंद पर पकड़ इतनी मजबूत है इस बार कि राजस्थान में चला सियासी संकट भी भारत जोड़ो यात्रा की सकारात्मकता को नहीं तोड़ पाया.
एक तस्वीर आयी और उस तस्वीर के सहारे लोगों ने देख लिया कि भारत जोड़ो यात्रा अपने भीतर एक अंतर्धारा लिए चल रही है. बारिश की मूसलाधार के बीच लोगों को संबोधित करते राहुल गांधी और प्लास्टिक की कुर्सियों को सिर पर छाते की तरह तानकर राहुल को पूरे ध्यान से सुनते हजारो लोग ! इस एक तस्वीर ने यात्रा के संदेश को हजारो समाचारों से कहीं ज्यादा बेहतरी से दर्ज किया. हो सकता है, यात्रा अबतक वायरल ना हुई हो लेकिन यह तस्वीर वायरल हो चुकी है.
इससे पता चलता है कि अभियान(भारत जोड़ो यात्रा) को लेकर लोगों के मनोभाव में एक महीन बदलाव आया है. भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत बेशक नरम रही. हमने जब 7 सितंबर को कन्याकुमारी से यात्रा शुरु की थी तो लोग-बाग इस यात्रा को लेकर अनजान थे, कुछ के मन में आशंकाएं थीं तो कुछ में चिड़चिड़ेपन का भाव. मुझे याद है, एक वरिष्ठ पत्रकार का फोन आया था. वे जानना चाह रहे थे कि क्या सचमुच ही पदयात्रा हो रही है. किसी को पता ना था कि दरअसल, यात्रा हो किस बात पर रही है. ‘ क्या सचमुच ये कांग्रेसी नेता पैदल चलेंगे? क्या राहुल गांधी इस यात्रा में जब-तब किसी मेहमान की तरह आकर प्रतीकात्मक भागीदारी करेंगे ? या फिर, वे सचमुच पूरी यात्रा में मौजूद रहेंगे, पूरी यात्रा पैदल तय करेंगे ?’
‘ क्या कांग्रेस की यह यात्रा बहुत अच्छी हुई तो रोड-शो और जो बहुत बुरी हुई तो एक तमाशे का प्रतिरूप बनकर नहीं रह जायेगी?’ मुझे याद है, यात्रा के शुरुआती दिन से ऐन पहले कुछ पारिवारिक हित-मीत मिलने आये थे. आशंकाएं जैसे उनके चेहरे पर तैर रही थीं. ‘ योगेन्द्र जी, आप अपनी साख का जोखिम उठा रहे हैं. हम जानते हैं, आप कांग्रेस से नहीं जुड़ने वाले, लेकिन क्या इस पार्टी के साथ किसी भी किस्म का जुड़ाव एक आत्मघात की तरह नहीं है?’ हमारे उन हितैषियों ने पूछ लिया था.
‘एक शुभ है` जो हुआ चाहता है
भारत जोड़ो यात्रा के पहले माह में कोई चीज बदली है. देश का मनोभाव बदला है—ऐसा कहना तो खैर जल्दीबाजी होगी. लेकिन, इसमें कोई शक नहीं कि यात्रा से किसी शुभ की शुरुआत हुई है. यह बात मुझे बार-बार सुनने को मिल रही है. भारत जोड़ो यात्रा आये दिन चलने वाला राजनीतिक तमाशा नहीं है— ऐसा मानने के छह कारण मैं यहां लिख रहा हूं.
पहली बात तो यही कि यह कोई प्रतिक्रिया में चलाया गया अभियान नहीं बल्कि एक सकारात्मक सोच से चलाया जा रहा अभियान है. बड़े लंबे समय के बाद संभव हुआ है कि प्रमुख विपक्षी दल सकर्मक सोच और सकारात्मक भाव से जमीनी स्तर पर कोई अभियान चला रही है, अपना अजेंडा तय करने की कोशिश कर रही है. बहुत दिनों बाद पहली बार हो रहा है ऐसा कि प्रमुख विपक्षी दल ने भारतीय जनता पार्टी को प्रतिक्रिया में कुछ करने के लिए मजबूर कर दिया है. यह केवल संयोग मात्र नहीं कि इस यात्रा के शुरु होने के पहले ही माह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुस्लिम उलेमा से रिश्ते गांठने और बेरोजगारी, गरीबी तथा गैर-बराबरी के मसले पर अपना पक्ष बताने-जताने में जी जान से जुट गई – याद करें कि यही मुद्दे तो इस यात्रा से भी उभरे हैं. राजनीति भी फुटबॉल के खेल की तरह है: यह बात बड़ा मायने रखती है कि गेंद पर किसने पकड़ बना रखी है. और, गेंद पर यह पकड़ कुछ इतनी मजबूत दिखी कि राजस्थान में संकट झेल रही कांग्रेस को लेकर बनते समाचारों से भी भारत जोड़ो यात्रा से पैदा सकारात्मकता दो दिनों से ज्यादा बेपटरी नहीं हो पायी.
दूसरी बात, यह सिर्फ यात्रा नहीं है—यह पदयात्रा है. पैदल चलना गहरे सांस्कृतिक अर्थों से भरा राजनीतिक कर्म है. पदयात्रा किसी तप की तरह है और इसके भीतर अपने संकल्प को स्वीकार और सिद्ध करने की कर्मठता होती है. कांवड़ यात्रा हो, अमरनाथ यात्रा और नर्मदा यात्रा हो या फिर भारत में चली हजारो सामाजिक तथा राजनीतिक यात्राएं—आप किसी का नाम लीजिए, सबमें एक सी बात पाइएगाः पदयात्रा, पैदल चलने वाले और उस यात्रा को देखने वाले के बीच एक पुल का काम करती है, दोनों को आपस में जोड़ देती है.
पदयात्रा को देख रही जनता खुद भी, अपने देखने मात्र से ही सहयात्री बन जाती है. इसके अतिरिक्त पदयात्रा संवाद स्थापित करने का एक वैकल्पिक साधन है— इसमें आप कर्मरत होने मात्र से संवाद करते हैं, आप नहीं बोलते मगर आपका काम बोलता है.
पदयात्रा को देख रही जनता खुद भी, अपने देखने मात्र से ही सहयात्री बन जाती है. इसके अतिरिक्त पदयात्रा संवाद स्थापित करने का एक वैकल्पिक साधन है— इसमें आप कर्मरत होने मात्र से संवाद करते हैं, आप नहीं बोलते मगर आपका काम बोलता है.
तीसरी बात, पदयात्रा कोई आभासी प्रतिरोध नहीं है. इसमें सचमुच ही अपने पैर जमीन पर रखने होते हैं, पदयात्रा ताकत की साकार अभिवयक्ति है. चूंकि बीजेपी-आरएसएस की वैधता इस एक दावे पर टिकी हुई है कि उसे जनता-जनार्दन का समर्थन हासिल है, सो प्रतिरोध का कोई भी कर्म हो उसे लोगों के बीच जाकर और जमीन पर पैर जमाकर ही अपनी शक्ति साबित करनी होगी. चूंकि आज की तारीख में हर आलोचक को अकेला बना दिया गया है, इस नाते एकजुटता की किसी भी अभिव्यक्ति के लिए अभी लोगों का एकट्ठ दिखाना जरुरी है. हजारों लोगों का एकजुट जत्था सड़कों पर चले तो यह खुद में प्रतिकार की एक ताकतवर अभिव्यक्ति बन जाता है. संसद जब मौन कर दी जाये तो आपको सड़क पर खड़े होकर `जागते रहो` की आवाज लगानी होती है.
चौथी बात, लोगों का यह कोई लामबंद किया हुआ नहीं है; यात्रा ने सचमुच ही लोगों के दिल पर दस्तक दी है. इसमें कोई शक नहीं कि यात्रा के बहुत से भागीदारों को कांग्रेस पार्टी तथा उसके नेताओं ने लामबंद किया है, लामबंद हुए ऐसे लोगों में वे भी शामिल हैं जिन्हें पार्टी का टिकट चाहिए. लेकिन, एक बात यह भी है कि पदयात्रा के दौरान तीन राज्यों से गुजरते हुए मुझे लोगों के चेहरों पर खिलती मुस्कुराहटों में अनेक भावों के दर्शन हुए हैं. ऐसी हर मुस्कुराहट के पीछे कौन सा भाव तैर रहा है यह जान पाना तो ब़ड़ा कठिन है लेकिन मेरे आगे यह स्पष्ट हो चला है कि इस यात्रा ने आशाएं जगायी हैं. कुछ लोग इस यात्रा से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े हैं, साथ चल रहे हैं या फिर सहायक सिद्ध हो रहे हैं, समर्थन दे रहे हैं. लेकिन, इनके अलावे भी बहुत से लोग हैं जिनके मन में इस यात्रा को लेकर सराहना और समर्थन के भाव हैं. यही वजह है कि बीजेपी के आईटी सेल ने कलंक लगाने की बारंबार कोशिश की तो भी यात्रा से लोगों के मन में उठा ज्वार मंद नहीं पड़ा.
पांचवीं बात, यह यात्रा सिर्फ सेकुलरवाद के मुद्दे तक सीमित नहीं. भारत जोड़ो यात्रा ने यह संदेश फैलाया है कि आज कई रुप-रंग की एकजुटता की जरुरत है. साथ ही, इस यात्रा से लोगों के बीच यह संदेश भी जा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था लगातार ढलान पर जा रही है, कि उसे संभालने की जरुरत है. राहुल गांधी अपने रोजाना के संबोधन में लोगों से यही कहते हैं कि जाति, भाषा और धर्म-संप्रदाय के बंधनों से ऊपर उठते हुए कई स्तरों पर एकजुट होने की जरुरत है. उनके भाषणों में नरेन्द्र मोदी सरकार की आलोचना के क्रम में यह बात बेशक आती है कि यह सरकार देश में नफरत की राजनीति चला रही है, हिन्दू और मुसलमान को अलगा रही है लेकिन राहुल के भाषणों में मोदी सरकार की आलोचना इस एक बिन्दु तक सीमित नहीं रहती. राहुल ने लगातार और पुरजोर ढंग से बेरोजगारी, महंगाई, नोटबंदी, वस्तु एवं सेवा कर(जीएसटी) तथा लचर होती प्रशासन-व्यवस्था का सवाल उठाया है. मुख्यधारा के राजनेताओं में वे उन इने-गिने चेहरों में एक हैं जिसने याराना पूंजीवाद(क्रोनी कैपिटलिज्म) पर प्रहार करने में कभी संकोच नहीं किया. यह यात्रा, बिछाये गये फांस-फंदो फंसे बैगर अपना संदेश आप गढ़ रही है.
इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि यह यात्रा सिर्फ कांग्रेसजन की यात्रा नहीं है. भारत जोड़ो यात्रा को ऐसे कई जन-आंदोलनों और संगठनों, जन-बुद्धिजीवियों तथा गणमान्य नागरिकों का समर्थन हासिल है जिनका अतीत में कांग्रेस से वैसा कोई राग-लगाव नहीं रहा. (इन पंक्तियों का लेखक इस समन्वय से सक्रिय रुप से जुड़ा है). ऐसे लोग जो आमतौर पर कोई राजनीतिक पक्ष नहीं लेते या फिर ऐसे लोग जो पहले कभी कांग्रेस के समर्थन में नहीं दिखे वे भी इस बार यात्रा के समर्थन में खुलकर सामने आ रहे हैं. इसे कांग्रेस से जुड़ाव या कांग्रेस के नेतृत्व के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. दरअसल, कांग्रेस से जुड़ाव ना रखने वाले लोग भी इस यात्रा से जुड़ रहे हैं तो इसलिए कि यह यात्रा एक नैतिक भावबोध जगाने में सफल हो रही है.
बीते मंगलवार को मैं उन्हीं पारिवारिक दोस्तों से मिला जिन्होंने मुझे खबरदार किया था कि साख का जोखिम ना उठाइए. इस बार मित्रों के चेहरे पर राहत के भाव थे. ‘ कुछ तो हो रहा है ‘, उनकी मुस्कुराहट उनके शब्दों से कहीं ज्यादा खुलकर बोल रही थी. ‘हां ,’ मैंने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, ‘बस जो अंतर्धारा चल रही है, उसे लहर मत समझ लीजिएगा क्योंकि पिक्चर अभी बाकी है.’
~ योगेन्द्र यादव
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